बीकानेर@ अपर जिला न्यायाधीश संख्या 5 बीकानेर ने मां के द्वारा पुत्र के विरुद्ध पेश की गई निगरानी याचिका को खारिज करते हुए पुत्र के हक में फैसला सुनाया। मामले के अनुसार कुचिलपुरा निवासी मनोज सोनी ने अपनी माता लालीदेवी की ओर से एक प्रथम सूचना रिपोर्ट सदर थाने में दर्ज कराई की लालीदेवी के पति स्व भंवरलाल सोनी द्वारा विवादित मकान का निर्माण 45 वर्ष पूर्व किया था। उस वक्त उसके पुत्र मुरलीधर मौसूण की आयु मात्र 5 वर्ष थी। परिवादिया द्वारा सदर पुलिस थाना में पूर्व मे प्रार्थना पत्र किया था जिस पर जॉच अरुण मिश्रा एएसआई द्वारा निष्पक्ष की जा रही है।
परिवादिया वृद्धा को उसका मकान दिलाने की कृपा करें और उसके दोनों लडके उसकी सेवा करते है। वे मजबूरी की वजह से दूसरे मकान में रह रहे है। उसका बडा लडका मुरलीधर शराबी है। पूर्व में लडाई झगडा करके मकान से बाहर निकाल दिया गया था। उस वक्त समाज के सामने समझौता करने की कोशिश की, लेकिन मुरलीधर ने किसी का कहना नहीं माना। जिस पर पुलिस ने मुरलीधर के विरूद्ध धारा 447 भारतीय दण्ड संहिता का अपराध प्रमाणित मान कर धारा 447 के अधीन चालान पेश किया। मगर निचली अदालत ने संज्ञान नही केलर चालान खारिज कर दिया। जिसके विरुद्ध लाली देवी ने निचली अदालत के फैसले के खिलाफ रिवीजन दायर कर पुत्र मुरलीधर के विरुद्ध संज्ञान लेने की बात कही। जिस पर कोर्ट ने फैसला देते हुए पुत्र मुरलीधर को निर्दोष मानते हुए मां की याचिका खारिज कर पुत्र को बड़ी राहत प्रदान की।
न्यायालय ने कहा कि घटना के 35 साल बाद बिना किसी आधार के निर्दोष व्यक्ति के विरुद्ध आपराधिक मामला चलाए जाने का आदेश नहीं दिया जा सकता जबकि परिवादियां के पति भँवरलाल के मृत्यु प्रमाण पत्र में मृत्यु की दिनांक 10.03.1989 अंकित है अर्थात मुरलीधर सोनी द्वारा दिनांक 10.03.1989 को भँवरलाल की मृत्यु के पश्चात ही लालीदेवी व उसके दो अन्य लडको को घर से निकाले के कथन गवाहों द्वारा किये गये है, इसके संबंध में स्वयं मनोज कुमार सोनी द्वारा पुलिस के समक्ष प्रस्तुत किए गए परिवाद में मनोज कुमार सोनी द्वारा स्पष्ट रूप से वर्णित है कि उक्त प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किए जाने से 20 वर्ष पूर्व उसके पिता भँवरलाल सोनी का देहावसान हो चुका था।अन्वेषण अधिकारी द्वारा जान-बुझकर चालान अथवा बयानों में भँवरलाल सोनी की मृत्यु की दिनांक अंकित नही कि। वही अनुसंधान अधिकारी की जांच पर कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि पत्रावली में यह तथ्य आया है कि माता लालीदेवी व अपने दोनों भाईयों को घर से निकालने के बाद मुरलीधर द्वारा उक्त विवादित मकान की फर्जी तरीके से रजिस्ट्री अपने नाम से करवा ली गई। प्रथमतः तो उक्त तथ्य साक्ष्य में आने पश्चात अन्वेषण अधिकारी अरुण मिश्रा द्वारा जानबुझकर इसके संबंध में कोई अन्वेषण ही नहीं किया कि उक्त सम्पति का मालिकाना हक मुरलीधर को कब प्राप्त हुआ।
लाली देवी ने कहा है कि दिनांक 25.06.1981 को एक इकरारनामा मुरलीधर जरिये कुदरती बली माता लालीदेवी व द्वितीय पक्षकार प्रशासक कय-विक्रय सहकारी समिति लिमिटेड कोलायत के मध्य किरायानामा हेतु हुआ जिसमें उक्त विवादित सम्पति को मुरलीधर की सम्पति बताया गया है। वही अपील में एक अन्य आधार यह भी लिया गया है कि एक 80 वर्षीय महिला को उसके पुत्र द्वारा उसके मकान से बाहर निकाला गया है। निचली न्यायालय ने इस बात की ओर ध्यान न देकर विधिक रूप से गलत आदेश पारित किया है जिससे समाज में गलत संदेश जायेगा। जिस पर एडीजे कोर्ट ने कहा कि मात्र संभावनाओं के आधार पर किसी व्यक्ति के विरूद्ध फौजदारी कार्यवाही संस्थित नहीं की जा सकती है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 को लागू करने का आशय मात्र यह था कि किसी व्यक्ति पर अपराध का संदेह होने से उसे अभियुक्त नही बनाया जावे बल्कि दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 का मुख्य उद्देदशय यह था कि किसी भी व्यक्ति के विरूद्ध संज्ञान तब लिया जावे जब पत्रावली पर ऐसा साक्ष्य हो कि यदि अभियुक्त की ओर से कोई साक्ष्य पेश नहीं की जायें एवं साथ ही अभियोजन के साक्ष्यों से प्रतिपरीक्षा नहीं की जाये तो अभियुक्त को दण्डित किया जा सकता है परन्तु उक्त पत्रावली पर ऐसा कोई आधार नहीं है कि यदि अभियुक्त की ओर से अभियोजन की साक्ष्यों से प्रतिपरीक्षा नही की जावे एवं साथ ही अभियुक्त की ओर से साक्ष्य पेश नहीं की जावे तो आरोपी को दोषसिद्ध किया जा सकता है। केवल मात्र समाज को अच्छा संदेश देने के लिए निर्दोष व्यक्ति को दण्डित किया जाना विधिक कार्यवाही के दुरूपयोग की श्रेणी में आता है।
इस प्रकार धारा 447 के अपराध का संज्ञान अपराध की दिनांक से एक वर्ष के भीतर लिया जा सकता है क्योंकि धारा 447 के अधीन अधिकतम तीन माह का कारावास या जुर्माना या दोनों से दण्डित किये जाने का प्रावधान है। ऐसा कहकर एडीजे कोर्ट ने लालीदेवी की याचिका खारिज कर एवं अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट संख्या-2, बीकानेर के आदेश को सही मानकर पुत्र को बरी कर दिया। उक्त मामले में पुत्र मुरलीधर की और से पैरवी एडवोकेट अनिल सोनी ने की।
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